Friday, October 24, 2008

हम क्यूँ मिले


क्या तुमने कभी ये सोचा है

हम तुम क्यूँ मिले क्यूँ हम साथ चले

जब जब भी मैंने ये सोचा है

कोई भी जवाब सीधा सा नही मिला

तुम्हे खामोशी पसंद है और मुझे निरथर्क बातें करना

तुम यतार्थ में रहते और मैं अपनी बनायी दुनिया में

तुम दुनियादारी की बाते बाताते तो मैं भावनाओ के बाने बुनती

तुम सबकुछ बोलना जानते और मैं बातें दिल मैं रखना


तुम सब सुनना चाहेते और मैं बिन बताये समझाना

तुम हक़ जाताना समझाते और मैं जिम्मेदारी निभाना

तुम बस कल में टाला करते और मैं आज मैं चीजे निपटाती

तुम दुसरे कान से बात निकला करते और मैं फिर भी समझाती

तुम सुबह थे तो मैं शाम तुम पूरब थे तो मैं पश्चिम
फिर भी पहेचानते पहेचानते हम एक दुसरे को जान गए

न हमारी चाहते ऐक जैसी थी न हमारी सोच

न हमारी मंजिल ऐक जैसी थी और न हमारी हसरतें

फिर भी हम मिल गए और साथ चले

अलग अलग मंजिल के लिए अपने रास्ते एक किए

Sunday, October 12, 2008

जब कभी भी किसी का किसी पर से विश्वास टूटता है


जब कभी भी किसी का किसी पर से विश्वास टूटता है
इंसान का ज़िन्दगी के साथ हर रिश्ता छूटता है

कितना मुश्किल होता है विश्वास रखना
कितना आसन होता हैं उसको तोड़ देना
सालो साल परत दर परत जमता है
और फिर एक तूफ़ान उसको बखेर देता है
एक ही पल में सब कुछ तहस नहस कर
सिर्फ़ अपने कुछ निशान छोड़ जाता है

तूफ़ान के बाद ज़िन्दगी तो फिर साँस लेने लगती है
टूटे घर फिर से बन्ने सवारने लगते हैं
खुशियाँ फिर रास्ता दूढ्ने लगती हैं
ज़िन्दगी के गीत एक बार फिर सजने लगते हैं

पर विश्वास का वो वृक्ष फिर हरा नहीं होता
उसको फिर दूसरा जीवन कभी नही मिलता
बिन नमी की जैसे ज़मीन जैसे बंजर हो जाती हैं
सूख जाता है वो , जड़ो में जो चोट लगती हैं

जब कभी भी किसी का किसी पर से विश्वास टूटता है
इंसान का ज़िन्दगी के साथ हर रिश्ता छूटता है