क्या सचमुच कोई बिन कहे समझता हैं
खामोश रहके ,आंखों की भाषा जानता हैं
लोग कहते हैं हैं की बिन बोले समझा नही जाता
मात्र एहसास से कुछ एहसास किया नही जाता
बिन रोये तो माँ भी कुछ समझ नही पाती
बच्चे के एहसासों का तात्पर्य जान नही पाती
पर इंसान फिर भी यही क्यों मांगता हैं
सब कुछ बिन कहे की कहना चाहता हैं
Kabhi kabhi kuch aisa hota hai ki aap kuch kehna chahte hai per kisse kahe ye samajh nahi aata, bus aise hi kuch khayalo ko shabd dene ki koshish hai "Meri Duniya"
Sunday, August 30, 2009
...'मैं'..
हर कोई जैसे एक ही भाषा जानता हैं
हर पल सिर्फ़ 'मैं' की कहानी दोहराता हैं
हर तरफ़ 'मैं' का ही साम्राज्य लगता हैं
हर 'मैं' सिर्फ़ अपने में ही उलझा लगता हैं
सोच की सारी सीमाये 'मैं' तक रह जाती हैं
हर राह 'मैं' से शुरु और 'मैं' पर ख्त्म हो जाती हैं
किसी और की न जगह हैं और न कोई भी जरुरत है
अपनी शखसियत में 'तू' का न कोई प्रतिबिम्ब हैं
फिर क्या फरक हैं इंसान और जानवर में
एक ही जवाब ढूढती हूँ अब इस हालात में
अपनी भूख के लिए शिकार यदि जंगलीपन हैं
तो क्या सिर्फ़ 'मैं' का पत्राचार इंसानियत हैं..
हर पल सिर्फ़ 'मैं' की कहानी दोहराता हैं
हर तरफ़ 'मैं' का ही साम्राज्य लगता हैं
हर 'मैं' सिर्फ़ अपने में ही उलझा लगता हैं
सोच की सारी सीमाये 'मैं' तक रह जाती हैं
हर राह 'मैं' से शुरु और 'मैं' पर ख्त्म हो जाती हैं
किसी और की न जगह हैं और न कोई भी जरुरत है
अपनी शखसियत में 'तू' का न कोई प्रतिबिम्ब हैं
फिर क्या फरक हैं इंसान और जानवर में
एक ही जवाब ढूढती हूँ अब इस हालात में
अपनी भूख के लिए शिकार यदि जंगलीपन हैं
तो क्या सिर्फ़ 'मैं' का पत्राचार इंसानियत हैं..
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