Sunday, August 30, 2009

...'मैं'..


हर कोई जैसे एक ही भाषा जानता हैं
हर पल सिर्फ़ 'मैं' की कहानी दोहराता हैं
हर तरफ़ 'मैं' का ही साम्राज्य लगता हैं
हर 'मैं' सिर्फ़ अपने में ही उलझा लगता हैं

सोच की सारी सीमाये 'मैं' तक रह जाती हैं
हर राह 'मैं' से शुरु और 'मैं' पर ख्त्म हो जाती हैं
किसी और की न जगह हैं और न कोई भी जरुरत है
अपनी शखसियत में 'तू' का न कोई प्रतिबिम्ब हैं

फिर क्या फरक हैं इंसान और जानवर में
एक ही जवाब ढूढती हूँ अब इस हालात में
अपनी भूख के लिए शिकार यदि जंगलीपन हैं
तो क्या सिर्फ़ 'मैं' का पत्राचार इंसानियत हैं..

2 comments:

मीत said...

अपनी शखसियत में 'तू' का न कोई प्रतिबिम्ब हैं
बहुत दिनों बाद लिखा लेकिन बेहतरीन लिखा है... नेहा...
बहुत बढ़िया... लेकिन लिखती रहा करो...
उम्मीद है आगे भी पढने के लिए मिलेगा...
मीत

archana said...

aajkal ki iss duniya mein log sirf "main" mein hi atak kar reh gaye hai...isse bahar aana bahut jaruri hai...bahut acchi koshish ki hai....