क्या था कल , और आज क्या रह गया
कुछ पलो के साथ जैसे सबकुछ बह गया
ज़िंदगी यूं तो कभी महफिल सी न थी
पर यूं तो कभी विरान भी न थी
किससे कहूँ, किससे शिक़ायत करों
कौन है जिससे ये हालत बयां करों
इसे किस्मत कहों या ज़माने कि बंदिश
या किसी अपने कि ही कोई गहरी साजिश
खैर जो भी ऐसा ही है
सच तो यह है कि, कोई अपना नही है
कुछ सवाल बार बार उठते है
जो हर बार जवाब ढ़ूढ़ते है
पर उनका कि जवाब नही मिलता
सारे जख्मो का हिसाब नही मिलता
जानती हूँ ज़िंदगी खतम नही होती
ये मौत भी इंसान को यूं नसीब नही होती
खुशनसीब है वो जो अश्क बहा सकते है
अपने दर्द को किसी से यूं बाँट सकते
ज़िंदगी कि न तो ये सुबह है और न ये शाम
न तो शुरुआत है और न तो ये अंजाम
न जाने कौन सा मोड़ है ये , न जाने कौन सी डगर
बस चलते जाना है बिन कोई हमसफ़र….
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