Sunday, April 19, 2009

सब समझे भी तो क्या हैं...

तुम्ही न समझ पाए कीमत
मेरी कविताओ की
मेरी भावनाओ की
सब समझे भी तो क्या हैं

शब्दों में लिखकर मैंने दिए कुछ मौन निमंत्रण
तुम पढ़ न पाए या शायद पढ़ना भी न चाहा
चाहा चित्रित कर दूँ अपने भावो को इनमे
तुम्हे ही टुकरा दिया जब इन अर्थो को
सब समझे भी तो क्या हैं

कोशिश लाख की तुमको समझने
और फिर तुमको समझाने की
लेकिन नाकाम हुई मेरी सारी बातें
व्यर्थ गई तेरी मेरी वो सब रातें
वही को , किया जो दर्द देता था
लौट के वही आकर रुके जहाँ से चले थे
तुमने ही जब नकार दिया मेरे अस्तित्व को
सब समझे भी तो क्या हैं

यह मेरी चाहत थी या कोई पागलपन
की मैंने ढूढा तुममे अपनापन
चाहा था लाख भरना फिर भी
रह गया यूँही खाली मेरा दामन
जब तुमने ही न पहचाना
मेरे इस अकेलेपन को
सब समझे भी तो क्या हैं

3 comments:

Anonymous said...

तुम्हे ही टुकरा दिया जब इन अर्थो को
सब समझे भी तो क्या हैं....


बहुत सुन्दर....

मीत said...

बहुत... बहुत... बहुत...
बहुत... सुंदर कविता है...
बिलकुल आपके नाम की तरह...
सच में इतना दर्द छिपा है इस रचना में की ऑंखें नम हुए बिना न रह सकी...
सच में बहुत खूबसूरत रचना...
मीत

मीत said...

एक बात और नयी तस्वीर अच्छी है... लगता है हरा रंग आपको बहुत पसंद है...
मीत