Wednesday, May 21, 2008

जाने क्यों..

जाने क्यों होता है ये आजकल मेरे साथ
कभी सबकुछ पास , सबकुछ अच्हा लगता है
अगले ही पल जैसे कुछ नही मेरे साथ
हर अपना भी पराया सा लगता है

दूरियों का एहसास बढ जाता है
अपना अस्तित्व और छोटा हो जाता है
खोयी हुई चीजों का दर्द और बढ जाता है
अकेलेपन का एहसास फिर दिलो-दिमाग पे छा जाता है

कहने सुनने के लिए कोई शब्द नही मिलते है
आंखों मी भी कुछ आसूँ ही रहते है
जाने क्यों रातों को करवटै बदलते रहते है
तन्हाई की चादर लपेटे और सिमटते जाते है

फिर करते है इंतज़ार और सिर्फ़ इंतज़ार
वक्त बीत जाने का नई सुबह आने का
दर्द भी मुस्कराहट के पीछे छुप जाते है
आंसू भी काजल बन आंखों मे सज जाते है..

2 comments:

मोहन वशिष्‍ठ said...

नेहा जी आपकी कविता पढी बहुत अच्‍छी लगी दर्द काफी लग रहा है आपकी कविता में दो लाईनें
खोयी हुई चीजों का दर्द और बढ जाता है
अकेलेपन का एहसास फिर दिलो-दिमाग पे छा जाता है
इनका तो क्‍या कहना मजा आ गया लिखो खूब
लेकिन एक बात और ये वर्ड् वेरिफिकेशन का टंटा हटा दो कमेंट में रुकावट का बैरियर बनता सा प्रतीत होता है
आपको हार्दिक शुभकानाएं

Pramod Kumar Kush 'tanha' said...

फिर करते है इंतज़ार और सिर्फ़ इंतज़ार
वक्त बीत जाने का नई सुबह आने का
दर्द भी मुस्कराहट के पीछे छुप जाते है
आंसू भी काजल बन आंखों मी सज जाते है..

Bhavnaon ki sunder abhivyakti hai aapki rachna mein.Hamesha likhtii rahein.Aapko merii shubhkaamnayein...