इंसान नित नए नए सपनो की माला पिरोता है
हर एक मोती के अपनी जगह पहुँच जाने पर
फिर उस धागे मे एक और मोती पिरोता है
और ये किस्सा चलता ही जाता है निरंतर
उसकी साँसे रुक जाने तक
हर रोज़ हाथ उठाकर भगवान से अपने
अपने सपनो की ताबीर मांगता है
सोचता है ये मिल जाए बस अब
सोचता ही है लेकिन ये होता नही
सिर्फ़ इतने पर ही पूर्ण विराम लगता नही
मैं भी तो इन सब का एक हिस्सा हूँ
कोई नया नही , वही पुराना किस्सा हूँ
कल एक मंजिल पाई मैंने
कुछ खुशी से , कुछ थकान से चैन की नीद सोयी भी
लेकिन फिर एक सपना देखा मैंने
मंजिल को मील का पत्थर जाना मैंने
अपनी नींद और अपनी खुशी को फिर खोया भी
फिर पहुँच गई सुबह के दरवाज़े पर
एक और नया सपना लेकर
एक और इच्छा का दिया जलाकर ..
1 comment:
बहुत खूब .बधाई हो .लिखती रहिये.कमेंट की परवाह न कीजिये .बहुत कम लोग होते जो बधाई देते है.नौकरी में होकर कविता लिखी है.बड़ा काम है.
मेरी भी पत्रिका और ब्लाग नेट पर है. मौका मिले तो देखियेगा. www.vangmay.com
vangmaypatrika.blogspot.com
www.radiosabrang.com
Post a Comment