Sunday, May 25, 2008

ऐ काश

ऐ काश कि ऐसा होता
ये जीवन एक सपना होता
न दुनिया की कोई बेमतलब रस्म होती
न दिलो दिमाग मे नित नई ज़ंग होती

जो चाहता है दिल, इंसान वही करता
अपने जीवन मे प्यार के सारे रंग समेटता
आजाद पंछी की तरह उड़ान भरता
अपनी मंजिल की तरफ़ बस आगे ही बढता


कभी इसको कभी उसको मनाने मे वक्त गवाता नही
करू न करूं इस पशोपेश मे फसता नही
अपने एच्छाओ की बलि यूही चदाता नही
अपनी ज़िंदगी को सज़ा बनाता नही

पर ज़िंदगी सपनो का कोई मेला नही
लें देन का ये एक खेला है
सबकी एक ही शिकायत कि मुझको कुछ मिला नही
पर किसी और के किए का कोई सिला नही

स्वार्थ और यातार्थ मे फर्क मिलता नही
अपनों से ही सामज्स्य बैठा पता नही
क्यों मुझे समझ सके ऐसा मिलता नही
क्यों किसी को मैं अपनी बात समझा पता नही

जो मिलता है तोड़ने की बात करता है
कभी दुनिया का कभी भगवन का वास्ता देता है
पर कैसे अपने ही हाथों से अपने सपने तोड़ दूँ
अपने ज़िन्दाअरमानों की चिता सज़ा दूँ....

2 comments:

vangmyapatrika said...

बहुत खूब . लिखती रहिये . अच्छी कविता है .

आशीष कुमार 'अंशु' said...

वाह-वाह