Monday, September 14, 2009

बस....क्योकि...

जाने क्या चाहता हैं मन मेरा
जाने क्या मांगता हैं दिल मेरा

नही जानती किस राह बढ रही हूँ
नही जानती किस दिशा जा रही हूँ
चल रही हूँ बस ,क्योकि चलना हैं
निभा रही हूँ बस,क्योकि निभाना हैं

सब कुछ इतना धुंधला सा क्यों हैं
मेरा दम इतना घुटता सा क्यों हैं
इतने सवालो में उलझा जीवन क्यों हैं
हर एक पल इतना कचोटता क्यों हैं

न आज का पता , न कल की ख़बर हैं
न दिन पर , न रात पर अब नज़र हैं

Sunday, August 30, 2009

क्यों

क्या सचमुच कोई बिन कहे समझता हैं
खामोश रहके ,आंखों की भाषा जानता हैं

लोग कहते हैं हैं की बिन बोले समझा नही जाता
मात्र एहसास से कुछ एहसास किया नही जाता
बिन रोये तो माँ भी कुछ समझ नही पाती
बच्चे के एहसासों का तात्पर्य जान नही पाती


पर इंसान फिर भी यही क्यों मांगता हैं
सब कुछ बिन कहे की कहना चाहता हैं

...'मैं'..


हर कोई जैसे एक ही भाषा जानता हैं
हर पल सिर्फ़ 'मैं' की कहानी दोहराता हैं
हर तरफ़ 'मैं' का ही साम्राज्य लगता हैं
हर 'मैं' सिर्फ़ अपने में ही उलझा लगता हैं

सोच की सारी सीमाये 'मैं' तक रह जाती हैं
हर राह 'मैं' से शुरु और 'मैं' पर ख्त्म हो जाती हैं
किसी और की न जगह हैं और न कोई भी जरुरत है
अपनी शखसियत में 'तू' का न कोई प्रतिबिम्ब हैं

फिर क्या फरक हैं इंसान और जानवर में
एक ही जवाब ढूढती हूँ अब इस हालात में
अपनी भूख के लिए शिकार यदि जंगलीपन हैं
तो क्या सिर्फ़ 'मैं' का पत्राचार इंसानियत हैं..

Sunday, May 24, 2009

इसका कोई अर्थ नही ..

जानती हूँ इस बात का एहसास तुम्हे बार बार होता हें
एक बात,वही एक ख्याल जेहन में अब बसता हें

नही मालूम इसमे कितनी सचाई हें
पर ये बात जरूर अब सामने आई है
पास रहके भी अब बहुत दूरी हें
शायद हालत की यही जूरी हें

सालो साल साथ चले थे हम
फिर भी आज दो अजनबी बन गए
कल तक अनगिनत,असीमित बातें थी
और आज सिर्फ़ बीच में खामोशी हें

कोशिशे तो की मैंने शायद ये
की हर बार तुम्हारा साथ दूँ
हर बार बिखरने से पहले संभालू
हर नाराजगी को कैसे भी दूर कर दूँ
दो हाथों में सब कुछ क़ैद करलूं

एक छोटी दुनिया नई कहीं दूर बसालूँ
तेरी मेरी खुशियों के उसमे रंग भर दूँ
पर कोशिशे कोशिश ही बनके रह गई
कभी सचाई इनको न बना पाई

तुमको हर बार नई नई चोट दी
हर बार तुमको मुझसे निराशा ही मिली
शयद मैं ही तुम्हारे रंग में न ढल पाई
जो चाहते थे वो कभी दे ही नही पाई

ऐसा न समझना कभी की मैंने कभी समझा नही
पर परिणाम के बिना इसका शायद इसका कोई अर्थ नही

Sunday, April 19, 2009

सब समझे भी तो क्या हैं...

तुम्ही न समझ पाए कीमत
मेरी कविताओ की
मेरी भावनाओ की
सब समझे भी तो क्या हैं

शब्दों में लिखकर मैंने दिए कुछ मौन निमंत्रण
तुम पढ़ न पाए या शायद पढ़ना भी न चाहा
चाहा चित्रित कर दूँ अपने भावो को इनमे
तुम्हे ही टुकरा दिया जब इन अर्थो को
सब समझे भी तो क्या हैं

कोशिश लाख की तुमको समझने
और फिर तुमको समझाने की
लेकिन नाकाम हुई मेरी सारी बातें
व्यर्थ गई तेरी मेरी वो सब रातें
वही को , किया जो दर्द देता था
लौट के वही आकर रुके जहाँ से चले थे
तुमने ही जब नकार दिया मेरे अस्तित्व को
सब समझे भी तो क्या हैं

यह मेरी चाहत थी या कोई पागलपन
की मैंने ढूढा तुममे अपनापन
चाहा था लाख भरना फिर भी
रह गया यूँही खाली मेरा दामन
जब तुमने ही न पहचाना
मेरे इस अकेलेपन को
सब समझे भी तो क्या हैं

Friday, April 10, 2009

प्रश्नचिन्ह,मिटाऊँ कैसे

अपने चेहरे से तेरी परछाई हटाॐ कैसे
तुम जो चाहते हो अब वो रंग लाऊं कैसे
अपने प्यार को छुपाऊ तो छुपाऊ कैसे
जैसे तुम चाहते हो वैसे बन जाऊ कैसे

जानती हूँ ज़िन्दगी के हर मोड़ पे मैंने
बहुत गलतिंयां की हैं , उन सब को सुधारूँ कैसे
जाने अनजाने तुम्हारे दिल को चोट दी हैं
उस बोझ में दबे दिल में अब दिये ज़लाऊ कैसे

मैंने भी यूँ तो कई ख्वाब सजाये थे
और अब उन टूटे ख्वाबो को जोडूँ कैसे
तेरी आंखों में धुन्ध्ली होती अपनी तस्वीर में
नए नए रंग भरने के लिए लाॐ कैसे

इतनी दूर तक साथ चली बस तेरे,
अब अपने रस्ते को अकेले खोजू कैसे
मंजिल भी मेरी तेरे आस पास ही थी कहीं
अब ख़ुद नई मंजिल तलाशूँ कैसे

जो हुआ वो तो वक्त के साथ मिट जाएगा
मेरे अश्को के साथ ही बह जाएगा
पर मेरी ज़िन्दगी में जो लगा हैं
एक प्रश्नचिन्ह, अब उसको मिटाऊँ कैसे

Thursday, April 9, 2009

रौशनी से अंधकार अच्छा है ..

सब कहते हैं की सवेरा सबसे अच्छा हैं
रौशनी का ही साथ सबसे सच्चा हैं
पर कैसा हैं ये सवेरा जो अंधकार करता हैं
आँख खुलते ही तन्हा होने का एहसास देता

मुंदी आंखों में एक विश्वास तो पलता हैं
कोई साथ हैं मेरे ये एहसास तो रहता हैं
पर ये सवेरा वो ब्रहम भी तोड़ देता हैं
और यथार्थ से मेरा नाता जोड़ जाता हैं

तेज़ धुप तन मन दोनों को झुल्साती जाती हैं
दूर दूर तक जहाँ भी ये नज़र जाती हैं
हर तरफ़ भीड़ ही भीड़ बस नज़र आती हैं
पास तो बहुत हैं पर साथ कोई भी नही
ये एहसास हर पल मुझे क्यों कराती हैं ?

रात कम से कम जख्मो को ठंडा तो कर देती हैं
अनेक तारो के बीच किसी अपने का चेहरा गद देती हैं
अपनी चादर में लपेटके, हवाओ से सर को सहलाती
और मेरी हर कहानी हर परेशानी मूक रहके सुन लेती हैं

Sunday, January 25, 2009

क्या हैं ये ज़िन्दगी ...

फूलों के खिलने का नाम हैं ज़िन्दगी
सपनो के बिखरने का नाम हैं जिन्दगी
मिलके बिछडने का नाम हैं ज़िन्दगी
फिर भी क्या हैं जिन्दगी ? कैसी हैं ज़िन्दगी ?

कभी हँसाती कभी रुलाती ये ज़िन्दगी
कभी धूप तो कभी छांव हैं ये ज़िन्दगी
कभी चाहत तो कभी बोझ हैं ज़िन्दगी
कभी जीते जी मार देती हैं ज़िन्दगी

ना जाने क्यूँ ऐसे ऐसे मोड़ दिखाती ये ज़िन्दगी
न जाने क्यों किसी से ज़िन्दादिली छीन लेती ज़िन्दगी
शायद ऐसे ही टूटने , ऐसे ही सिमटने का नाम हैं ज़िन्दगी
कभी फूलों कभी काँटों की चुभन का नाम हैं ज़िन्दगी...

Wednesday, January 21, 2009

चाहती हूँ ...

एक एक शब्द बनकर तेरे होठों पर छा जाना चाहती हूँ
एक एक गम बनकर तेरी आंखों से कतरा बन बह जाना चाहती हूँ
एक एक खवाब बनकर तेरी पलकों में क़ैद हो जाना चाहती हूँ
एक एक याद बनकर तेरे दिल में बस जाना चाहती हूँ


एक हमसाया बनकर तेरा हमकदम बन जाना चाहतीं हूं
एक खुशी बनकर तेरे नए जीवन की नींव बन जाना चाहती हूं
एक बीता कल बनके ही सही तेरी यादों में बस जाना चाहती हूं
ख़ुद को मिटाकर तेरे मन में बस जाना चाहती हूं
एक एहसास बनकर तेरे आसपास अनंत में लीन हो जाना चाहती हूं







Friday, January 2, 2009

ये बदलाव अछा क्यों नही लगता हैं ..


नया साल नया दिन ..सबकी ढेरो शुभकामनाये ..पर नया क्या हैं ये मुझे अब समझ नहीं आता कि तारीख के आलावा कुछ बदला नही लगता .तारीखे तो रोज़ बदला करती हैं फिर ..


सबके चेहरों पे वही एक झूटी मुस्कराहट और वही एक गहरा नकाब ..कौन क्या चाहता हैं क्या करता हैं कुछ भी समझ पाना मुश्किल लगता हैं..और और आजकल ये दिल क्या चाहता हैं ये भी समझ पाना मुश्किल हो गया हैं॥

सबकी अपनी दुनिया हैं जिसमे किसी और की कोई जगह नही..किसी के पास किसी की बात सुनने का भी वक्त नही है ।
पहले जब भी रात को आसमान की तरफ़ देखा करती..उसके दूर दूर तक बिखरे तारे देखती तो दिल को सुकून मिला करता पर वही आसमान आज खालीपन का एहसास दे जाता हैं..एक ऐसा एहसास जो ख़तम ही नही होता ..
पहले कभी ऐसा नही लगता था..क्या बदला हैं ये आसमान या मेरी नज़र
सब कुछ इतना बदला बदला क्यों हैं और ये बदलाव अछा क्यों नही लगता हैं ..