Tuesday, December 23, 2008

जो मैं एक संवेदनशील इंसान हूँ


जब न किसीको समझा पाती और न ख़ुद समझ पाती
सबकी शिकायतो का केन्द्र बस मैं ही बन जाती
अपनी सोच है मेरी भी और अपने एहसास भी
क्यों भूल जाते हैं सब हूँ तो एक इंसान ही

भावनाओ के सागर में कश्ती मेरी हिचकोले खाती
तूफानों में कभी तैरती तो कभी डूब जाती
कभी तूफ़ान को बाँधने की कोशिश कामयाब रहती
तो कभी तूफान को इन आंखों से छलकते पाती

जानती हूँ की वो सिर्फ़ कुछ बूँद पानी की ही हैं
जो न वक्त देखता हैं न उसकी कोई मंजिल हैं
जानती हूँ वो बूँद दुनिया के लिए तो बेमानी है
पर मुझे जता जाती की कहीं कुछ आज भी जिंदा हैं

सबकी तरह कुछ इछाये मेरे मन में भी पनपती हैं
सबकी तरह कुछ अपेक्षाए मेरी भी अपनों से होती हैं
नही आसान मेरे लिए अपने हाथो से उनका दम घोट देना
ये और बात की गुजरते वक्त के साथ उनका यू अन्तिम साँस लेना

न किसी पे कोई तोहमत न किसी से मैं नाराज़ हूँ
पर क्या मैं ही ग़लत हूँ और क्या मैं इसकी कसूरवार हूँ
न जानती हूँ और न किसी को दोष देना चाहती हूँ
मैं क्या करू जो मैं एक संवेदनशील इंसान हूँ

Friday, October 24, 2008

हम क्यूँ मिले


क्या तुमने कभी ये सोचा है

हम तुम क्यूँ मिले क्यूँ हम साथ चले

जब जब भी मैंने ये सोचा है

कोई भी जवाब सीधा सा नही मिला

तुम्हे खामोशी पसंद है और मुझे निरथर्क बातें करना

तुम यतार्थ में रहते और मैं अपनी बनायी दुनिया में

तुम दुनियादारी की बाते बाताते तो मैं भावनाओ के बाने बुनती

तुम सबकुछ बोलना जानते और मैं बातें दिल मैं रखना


तुम सब सुनना चाहेते और मैं बिन बताये समझाना

तुम हक़ जाताना समझाते और मैं जिम्मेदारी निभाना

तुम बस कल में टाला करते और मैं आज मैं चीजे निपटाती

तुम दुसरे कान से बात निकला करते और मैं फिर भी समझाती

तुम सुबह थे तो मैं शाम तुम पूरब थे तो मैं पश्चिम
फिर भी पहेचानते पहेचानते हम एक दुसरे को जान गए

न हमारी चाहते ऐक जैसी थी न हमारी सोच

न हमारी मंजिल ऐक जैसी थी और न हमारी हसरतें

फिर भी हम मिल गए और साथ चले

अलग अलग मंजिल के लिए अपने रास्ते एक किए

Sunday, October 12, 2008

जब कभी भी किसी का किसी पर से विश्वास टूटता है


जब कभी भी किसी का किसी पर से विश्वास टूटता है
इंसान का ज़िन्दगी के साथ हर रिश्ता छूटता है

कितना मुश्किल होता है विश्वास रखना
कितना आसन होता हैं उसको तोड़ देना
सालो साल परत दर परत जमता है
और फिर एक तूफ़ान उसको बखेर देता है
एक ही पल में सब कुछ तहस नहस कर
सिर्फ़ अपने कुछ निशान छोड़ जाता है

तूफ़ान के बाद ज़िन्दगी तो फिर साँस लेने लगती है
टूटे घर फिर से बन्ने सवारने लगते हैं
खुशियाँ फिर रास्ता दूढ्ने लगती हैं
ज़िन्दगी के गीत एक बार फिर सजने लगते हैं

पर विश्वास का वो वृक्ष फिर हरा नहीं होता
उसको फिर दूसरा जीवन कभी नही मिलता
बिन नमी की जैसे ज़मीन जैसे बंजर हो जाती हैं
सूख जाता है वो , जड़ो में जो चोट लगती हैं

जब कभी भी किसी का किसी पर से विश्वास टूटता है
इंसान का ज़िन्दगी के साथ हर रिश्ता छूटता है

Monday, September 8, 2008

काश की कुछ यूं होता

काश की कुछ यूं होता
ये दिल,दिल न होके एक पत्थर होता
किसी दर्द का कोई एहसास न होता
किसी को मुझसे कोई गिला भी न होता

न इसमे कोई चाहत होती
न इसमे किसी की तमन्ना रहती
न किसी से कुछ अपेक्षाए रहती
न किसी को मुझसे शिकायत होती

किसी के साथ चलने की न कोई चाहत होती
किसी को अपना बनने की न जरूरत होती
किसी सपने की इन आंखों में न कोई कल्पना होती
किसी शिकायत की भी फिर न कोई ऊपज होती

भावनाओ को एक पिंजरे में बंद किया जा सकता
हसरतो का दम अपने हाथों से घोटा जा सकता
उम्मीदों के पंख जब मर्ज़ी कतरे जा सकते
खवाब सारे यूं ही खिलोने से तोडे जा सकते

दर्द का फिर न कोई एहसास होता
आंसू भी ख़ुद बा ख़ुद न बहते
थोड़ा और पाने की चाहत न जगती
नए सिरे से नित नई ज़िन्दगी जी जा सकती

पल पल एहसासो का यूं दमन न होता
हर रोज़ ये दिल टुकड़े टुकड़े न होता
फिर सोचती हूँ की काश ये दिल ही न होता
ज़िन्दगी का दर्द फिर कितना कम होता

Sunday, July 13, 2008

मेरे साथ ही क्यों हुआ है ?..

रिश्तों में मेरा जीवन जो बंधा हुआ है
क्यों वो आज जलती चिता सा सुलगा हुआ है
हर अरमान हर ख्वाब जिंदा ही सुलगा हुआ है
सारे सपनो का जैसे हकीक़त से सामना हुआ है

आंखों से सावन यूँ छलका हुआ है
दिल में कोई दर्द जैसे अटका हुआ है
किसी की कुछ बातों से वक्त रुका हुआ है
रोने से कब दर्द किसी का कम हुआ है

आंखों का जैसे नींद से रिश्ता टुटा हुआ है
कोई पुराना घाव आज फिर हरा हुआ है
दिलों से विश्वास जैसे धटा हुआ है
और फिर एक बार मेरा दिल आज तन्हा हुआ है

वक्त ने चाहां और किस्मत ने नचाया हुआ है
दुनिया की बातों का बोझ बड़ा हुआ है
भावनाओ का दम जैसे घुटा हुआ है
मेरे चाहने न चाहने से कब कुछ हुआ है

तोहमतों से दामन मेरा भरा हुआ है
रिश्तों का चेहरा क्यों बिगडा हुआ है
साथ चलते चलते कोई अजनबी हुआ है
कोई तो जवाब दे ये मेरे साथ ही क्यों हुआ है ?

Friday, June 27, 2008

एक शाम जिंदगी की..


एक और शाम जिंदगी की
दूर सबसे, फिर भी अनेको के बीच
न कोई सवाल, न किसी की शिकायतए
एक ऐसी ही शाम जिंदगी की

देर सारी उलझाने मन में लिए
बिन कोई भावना ,बिन कोई सपने बुने
घिरी हुई हूँ अजनबी चेहरों के बीच
एक सफर में , बिन किसी के हमसफ़र हुए

दूर कहीं सागर में सूरज डूब रहा है
किरणों को अपनी बाहों में समेट रहा है
धुंध भी पहाडो पे धीरे धीरे छा रही है
अपने आगोश में उन्हें लिये,चैन की साँस ले रही है

सब कितना शांत लग,कितना शीतल लग रहा है
जैसे कोई सपना हर ऑख में पल रहा है
पर मेरी आँख इतनी नम् क्यों है?
छोटी छोटी खुशियाँ मुझ से ही दूर क्यों है?

काश की ये सफर कभी खत्म न हो
इस राह की मंजिल कहीं न हो
ये वक्त बस अब यही थम जाए
मेरी जिंदगी की हर शाम ऐसी हो जाए...

Friday, June 20, 2008

डूबती कश्ती

न आसमान की चाहत की
और न विस्तृत जमीन की
न सागर की चाहत की
और न असीमित ऐश्वर्य की

छोटी छोटी सी खुशियाँ चाही
पर बड़े बड़े सपने नही देखे
थोड़ा थोड़ा सा जिंदगी में सुकून चाहा
पर और ज्यादा ज्यादा की आरजू नही सजाई

रिश्तो के एक अटूट डोर जरूर चाही
पर नफरत की ये आंधी तो मांगी
सबके चेहरे पर मुस्कुराहट जरूर चाही
पर इल्जामो की जड़ी तो नही मांगी

किसने सोचा था की एक दिन जिंदगी यहाँ ले आएगी
जो राह फूलो की थी, वही अब काटों सी हो जायेगी
जहाँ से सुरु किया था सफर, जिंदगी वही खड़ी नज़र आएगी
मझदार में फ़सी मेरी कश्ती डूबती नज़र आएगी..

Saturday, June 14, 2008

क्यों है...

जाने क्या क्या चाहता है ये मन
न जाने क्यों इतना बेचैन रहता है हर पल
कभी ये पंछी बन उड़ जाना चाहता है
तो कभी ये नदिया बन बह जाना चाहता है

कभी ये फूल बन महकना चाहता है
तो कभी तारा बन चमकना चाहता है
पल पल न जाने कितने सपने सजाता है
और अगले ही पल अपने हाथों से उनका गला घोट देता है

चाहने न चाहने से मेरे क्या होता है
होने या न होने का फ़ैसला तो कोई और करता है
कश्तियाँ तो समुद्र मे कई उतरती है
साहिल तक पहुचने का फ़ैसला तूफ़ान करता है

क्या इसे लकीरों का लिखा कहते है
या किसी का निर्धारित फ़ैसला
ऐसा है तो वो बिछडने वालो को मिलाता क्यों है
खोने वालो को एक बार देता ही क्यों है...

Sunday, May 25, 2008

ऐ काश

ऐ काश कि ऐसा होता
ये जीवन एक सपना होता
न दुनिया की कोई बेमतलब रस्म होती
न दिलो दिमाग मे नित नई ज़ंग होती

जो चाहता है दिल, इंसान वही करता
अपने जीवन मे प्यार के सारे रंग समेटता
आजाद पंछी की तरह उड़ान भरता
अपनी मंजिल की तरफ़ बस आगे ही बढता


कभी इसको कभी उसको मनाने मे वक्त गवाता नही
करू न करूं इस पशोपेश मे फसता नही
अपने एच्छाओ की बलि यूही चदाता नही
अपनी ज़िंदगी को सज़ा बनाता नही

पर ज़िंदगी सपनो का कोई मेला नही
लें देन का ये एक खेला है
सबकी एक ही शिकायत कि मुझको कुछ मिला नही
पर किसी और के किए का कोई सिला नही

स्वार्थ और यातार्थ मे फर्क मिलता नही
अपनों से ही सामज्स्य बैठा पता नही
क्यों मुझे समझ सके ऐसा मिलता नही
क्यों किसी को मैं अपनी बात समझा पता नही

जो मिलता है तोड़ने की बात करता है
कभी दुनिया का कभी भगवन का वास्ता देता है
पर कैसे अपने ही हाथों से अपने सपने तोड़ दूँ
अपने ज़िन्दाअरमानों की चिता सज़ा दूँ....

Friday, May 23, 2008

एक और इच्छा का दिया जलाकर ..

इंसान नित नए नए सपनो की माला पिरोता है
हर एक मोती के अपनी जगह पहुँच जाने पर
फिर उस धागे मे एक और मोती पिरोता है
और ये किस्सा चलता ही जाता है निरंतर
उसकी साँसे रुक जाने तक

हर रोज़ हाथ उठाकर भगवान से अपने
अपने सपनो की ताबीर मांगता है
सोचता है ये मिल जाए बस अब
सोचता ही है लेकिन ये होता नही
सिर्फ़ इतने पर ही पूर्ण विराम लगता नही

मैं भी तो इन सब का एक हिस्सा हूँ
कोई नया नही , वही पुराना किस्सा हूँ
कल एक मंजिल पाई मैंने
कुछ खुशी से , कुछ थकान से चैन की नीद सोयी भी
लेकिन फिर एक सपना देखा मैंने
मंजिल को मील का पत्थर जाना मैंने
अपनी नींद और अपनी खुशी को फिर खोया भी
फिर पहुँच गई सुबह के दरवाज़े पर
एक और नया सपना लेकर
एक और इच्छा का दिया जलाकर ..

Wednesday, May 21, 2008

जाने क्यों..

जाने क्यों होता है ये आजकल मेरे साथ
कभी सबकुछ पास , सबकुछ अच्हा लगता है
अगले ही पल जैसे कुछ नही मेरे साथ
हर अपना भी पराया सा लगता है

दूरियों का एहसास बढ जाता है
अपना अस्तित्व और छोटा हो जाता है
खोयी हुई चीजों का दर्द और बढ जाता है
अकेलेपन का एहसास फिर दिलो-दिमाग पे छा जाता है

कहने सुनने के लिए कोई शब्द नही मिलते है
आंखों मी भी कुछ आसूँ ही रहते है
जाने क्यों रातों को करवटै बदलते रहते है
तन्हाई की चादर लपेटे और सिमटते जाते है

फिर करते है इंतज़ार और सिर्फ़ इंतज़ार
वक्त बीत जाने का नई सुबह आने का
दर्द भी मुस्कराहट के पीछे छुप जाते है
आंसू भी काजल बन आंखों मे सज जाते है..

Thursday, May 15, 2008

समझ नही आता …

मन मे है न जाने कितने तूफ़ान
पर शब्दों मे नही आते
आंखों मे है रहते कितने अरमान
पर ज़िंदगी मे नही समाते.

किसको दोष दूँ मैं
अब तो ये भी समझ नही आता
कितने फ़साने कितनी हकीक़त
अब तो ये भी जाना नही पाते

धोका, घाव, दर्द ये ही मिला मुझको
अपने परायो मे फर्क ही नही मिलता
कौन सी मंजिल, कौन सी दिशा
अब रास्तों मे फर्क करना नही आता

हर रोज़ नई कहानी , हर रोज़ नई उलझन
कब क्या बन जाए , पता नही चलता
कितने दोस्त कितने अपने
कब दुश्मन हो जाए पता नही चलता

किसी चेहरे पे शिकन, किसी चेहरे पे मुस्कराहट
किसकी कितनी गहरी फरक नही आता
किसकी जीत किसकी हार, क्या अंत क्या शुरुआत
कुछ भी अब समझ नही आता …

Wednesday, May 14, 2008

एक कमी सी है......

सबकुछ है मेरे आसपास
फिर भी एक कमी सी है
शीतल है सबकुछ मेरे आसपास
फिर भी रेत मे चिंगारी दबी सी है

न जाने कितने सपने सजे है इन आंखों मे
फिर भी आंखों मे नमी सी है
न जाने कितने चेहरे है मेरे आसपास
फिर भी दिल मे एक कमी सी है

हर तरफ़ जाने पहचाने लोग है
फिर भी किसी की सख्त कमी सी है
हर तरफ़ खुशियों का आलम है
फिर भी चेहरों पर कोई परत जमी सी है

न जाने कितने अपने है मेरे
फिर भी किसी की कमी सी है
न जाने कितनी भावनाये, कितनी पंक्तियाँ
फिर भी इस कविता मी एक कमी सी है..

Tuesday, May 13, 2008

बेहतर है…

जब दूरियां बदती जाए दो मुसाफिरों के बीच
तब कुछ देर तक रुक जाना ही बेहतर है
पर जब दूरियां बदती जाए दो दिलो के बीच
तब शायद जुदा हो जाना बेहतर है

जब होतो पर आती बात रुक- रुक जाए
तब हिम्मत कर सब कह देना बेहतर है
पर जब बात चुब जाए दिल मे
तब खामोश रह जाना बेहतर है

जब दो पल खुशी के मिल जाए ज़िंदगी मे
तब चार लोगो मे बाँट लेना बेहतर है
पर जब गमो मे घिर जाए ज़िंदगी
तब तन्हाई मे रोना बेहतर है

जब हसरते हकीक़त मे तब्दील होने लगे
तब ख्वाब देखते रहना बेहतर है
पर जब हसरते किस्से बनकर रह जाए
तब खवाबो को कागजों मे बंद करना बेहतर है

जब साथ हो कोई , जब पास हो कोई
तब हर शाम , हर सुबह बेहतर है
पर जब अकेले हो और दिल भी तन्हा हो
तब अपने अन्दर ही सहारे तलाशना बेहतर है..